Thursday 19 March 2015

Lunch with GOD

LUNCH WITH GOD!
(Must read this)

A little boy wanted to meet God! He packed his suitcase with two sets of his dress and some packets of cakes! He started his journey, he walked a long distance and found a park! He was feeling tired, so, he decided to sit in the park and take some refreshment! He opened a packet of cake to eat!

He noticed an old woman sitting nearby, sad with hunger, so he offered her a piece of cake!

She gratefully accepted it with a wide look and smiled at him! Her smile was so pretty that the boy longed to see it again! After sometime he offered her another piece of cake! Again, she accepted it and smiled at him! The boy was delighted!

They sat there all afternoon eating and smiling, but never said a word! While it grew dark, the boy was frightened and he got up to leave but before he had gone more than a few steps, he ran back and gave the woman a hug and she kissed him with her prettiest smile!

Back home, when the boy knocked the door, his mother was surprised by the look of joy on his face!

She asked him, "What did you do today that makes you look so happy?"

He replied, "I had lunch with God!"

Before his mother could respond, he added, "You know what? She's got the most beautiful smile I've ever seen in my life!"

Meanwhile, the old woman, also radiant with joy, returned to her home! Her son was stunned by the look of peace on her face and asked, "Mom, what did you do today that made you so happy?"

She replied, "I ate cakes in the park with God!"

Before her son responded, she added, "You know, he's much younger than I expected!"

Too often we underestimate the power of;
a touch,
a smile,
a kind word or a sermon,
a listening ear,
an honest compliment,
or
the smallest act of caring,
all of which have the potential to turn a life around!

Remember, nobody knows how God will look like! People come into our lives for a reason, for a season or for a lifetime in any relation!!

Accept all of them equally.. .. ..

.. .. ..LET THEM SEE GOD IN YOU..!!

मनीषा पंचक स्तोत्रम्।

एक दिन यतिवर शंकर अपने शिष्यों के संग गंगा जी में स्नान करने काशी गये थे । गंगा स्नान के बाद जब वे वापस लौट रहे थे तो उन्हें एक चाण्डाल चार कुत्तों को साथ लिए उसी रास्ते में आता दिखाई दिया । यतिवर शंकर रुक कर एक किनारे खड़े हो गये ताकि कहीं उनसे चाण्डाल छू न जाय अन्यथा वे अपवित्र हो जायेंगे और उच्च स्वर में बोले, " दूर हटो, दूर हटो ।"

यह सुनकर चण्डाल ने कहा, " ब्राह्मण देवता, आप तो वेदान्त के अद्वैतवादी मत का प्रचार करते हुए भ्रमण करते हैं । फिर आपके लिये यह अस्पृश्यता-बोध (छुआ-छूत), भेद-भाव दिखाना कैसे संभव होता है ? मेरा शरीर छू जाने से आप अपवित्र हो जायेंगे, यह सोच कर आप आशंकित हैं ; किन्तु क्या हमदोनों का शरीर एक ही पंचतत्व के उपादानों से निर्मित नहीं है ? आपके भीतर जो आत्मा हैं और मेरे भीतर जो आत्मा हैं, वे एक नहीं हैं क्या ? हम दोनों के भीतर, सभी प्राणियों के भीतर क्या एक ही शुद्ध आत्मा विद्यमान नहीं हैं ? 

आचार्य शंकर तत्क्षण समझ गए कि यह कोई साधारण चांडाल नहीं है और चांडाल के वेश में स्वयं भगवान् विश्वनाथ है । आचार्य उन्हें दंडवत प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। आचार्य ने जिन श्लोको से चांडाल वेशधारी भगवान् विश्वनाथ की स्तुति वे श्लोक "मनीषा पंचकं" के नाम से प्रसिद्द हैं । इस स्त्रोत्र के प्रत्येक स्तुति के अन्त में कहा गया है- " इस सृष्टि को जिस किसी ने भी अद्वैत-दृष्टि से देखना सीख लिया है, वह चाहे कोई ब्राह्मण हो चण्डाल हो; वही मेरा सच्चा गुरु है । "इन श्लोको कि संख्या पांच है और प्रत्येक के अंत में 'मनीषा' शब्द आता है इसीलिए इन्हें "मनीषा पंचकं" कहा गया है । जो इस प्रकार हैं -

चाण्डाल (वेश धारी भगवान शिव) ने श्री आद्य शंकराचार्य जी से पूछा -

अन्नामयादान्नमयम्थ्वा चैतन्यमेव चैतान्यात । 
द्विजवर दूरीकर्तु वाञछसि किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति ॥

(हे द्विज श्रेष्ठ ! " दूर हटो, दूर हटो" इन शब्दों के द्वारा आप किसे दूर करना चाहते हैं ? क्या आप (मेरे) इस अन्नमय शरीर को अपने शरीर से जो कि वह भी अन्नमय है अथवा शरीर के अंतर्गत स्थित उस चैतन्य (चेतना) को जो हमारे सभी क्रिया कलापों का दृष्टा और साक्षी है ? कृपया बताएं !)

किं गंगाम्बुनि बिम्बितेअम्बरमनौ चंडालवाटीपयः
पूरे वांतरमस्ति कांचनघटी मृत्कुम्भयोर्वाम्बरे ।
प्रत्यग्वस्तुनि निस्तारन्ग्सह्जान्न्दाव्बोधाम्बुधौ
विप्रोअयम्श्व्प्चोअय्मित्य्पिमहन्कोअयम्विभेद्भ्रमः ॥

(हे ब्राह्मण देवता ! कृपया मुझे बताएं कि क्या ब्राह्मण अथवा चांडाल सभी के शरीरो का साक्षी और दृष्टा एक नहीं है भिन्न है ? क्या साक्षी में नानात्व है ? क्या वह एक और अद्वितीय नहीं है ? आप (जैसे विद्वान) इस नानात्व के भ्रम में कैसे पड़ सकते हैं ? कृपया मुझे यह भी बताएं कि क्या एक सोने के बर्तन और एक मिट्टी के बर्तन में विद्यमान खाली जगह के बीच कोई अंतर है ? और क्या गंगाजल और मदिरा में प्रतिबिंबित सूर्य में किसी प्रकार का भेद है ? सूर्य के प्रतिबिम्ब भिन्न हो सकते हैं, पर बिम्ब रूप सूर्य तो एक ही है।) 

तब भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य ने उत्तर दिया -

|| मनीषा पञ्चकं ||

जाग्रत्स्वप्न सुषुत्पिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते
या ब्रह्मादि पिपीलिकान्त तनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी।
सैवाहं न च दृश्य वस्त्विति दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचेत
चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥

(जो चेतना जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि तीनों अवस्थाओं के ज्ञान को प्रकट करती है जो चैतन्य विष्णु, शिव आदि देवताओं में स्फुरित हो रहा है वही चैतन्य चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओ तक में स्फुरित है । जिस दृढबुद्धि पुरुष कि दृष्टि में सम्पूर्ण विश्व आत्मरूप से प्रकाशित हो रहा है वह चाहे ब्राह्मण हो अथवा चांडाल हो, वह वन्दनीय है यह मेरी दृढ निष्ठा है । जिसकी ऐसी बुद्धि और निष्ठा है कि "मैं चैतन्य हूँ यह दृश्य जगत नहीं"' वह चांडाल भले ही हो, पर वह मेरा गुरु है॥१॥)

ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं
सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम् ।
इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले
चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥

(मैं ब्रह्म ही हूँ चेतन मात्र से व्याप्त यह समस्त जगत भी ब्रह्मरूप ही है । समस्त दृष्यजाल मेरे द्वारा ही त्रिगुणमय अविद्या से कल्पित है । मैं सुखी, सत्य, निर्मल, नित्य, पर ब्रह्म रूप में हूँ जिसकी ऐसी दृढ बुद्धि है वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है॥२॥)

शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः
नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना ।
भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके
प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥

(जिसने अपने गुरु के वचनों से यह निश्चित कर लिया है कि परिवर्तनशील यह जगत अनित्य है । जो अपने मन को वश में करके शांत आत्मना है । जो निरंतर ब्रह्म चिंतन में स्थित है । जिसने परमात्म रुपी अग्नि में अपनी सभी भूत और भविष्य की वासनाओं का दहन कर लिया है और जिसने अपने प्रारब्ध का क्षय करके देह को समर्पित कर दिया है । वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है॥३॥)

या तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते
यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतो चेतनाः ।
ताम् भास्यैः पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावय
न्योगी निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥

(सर्प आदि तिर्यक, मनुष्य देवादि द्वारा "अहम्" मैं ऐसा गृहीत होता है । उसी के प्रकाश से स्वत: जड़, हृदय, देह और विषय भाषित होते हैं । मेघ से आवृत सूर्य मंडल के समान विषयों से आच्छादित उस ज्योतिरूप आत्मा की सदा भावना करने वाला आनंदनिमग्न योगी मेरा गुरु है । ऐसी मेरी मनीषा है॥४॥)

यत्सौख्याम्बुधि लेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता
यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः।
यस्मिन्नित्य सुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद्
यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥

(प्रशांत काल में एक योगी का अंत:करण जिस परमानंद कि अनुभूति करता है जिसकी एक बूँद मात्र इन्द्र आदि को तृप्त और संतुष्ट कर देती है । जिसने अपनी बुद्धि को ऐसा परमानंद सागर में विलीन कर लिया है वह मात्र ब्रह्मविद ही नहीं स्वयं ब्रह्म है । वह अति दुर्लभ है जिसके चरणों की वन्दना देवराज भी करते हैं वह मेरा गुरु है । ऐसी मेरी मनीषा है॥५॥)

जय जय शंकर , हर हर शंकर !!!

॥ जय श्री राम ॥

Wednesday 4 March 2015

कितने कितने राम

कितने-कितने राम

एक दिन की बात है. रामजी सिंहासन पर विराजमान थे. उनकी अँगूठी अनामिका से खिसककर अचानक गिर पड़ी.

अँगूठी ने ज़मीन को छुआ तो उस जगह एक छेद बन गया. अँगूठी उसी छेद में लुप्त हो गई.

अपने स्वामी के विश्वसनीय अनुचर हनुमान हमेशा की तरह प्रभु राम के चरणों में किसी भी प्रकार की सत्वर सेवा देने के लिए प्रस्तुत थे.

प्रभु राम ने उनसे कहा, “मित्र, देखो मेरी अँगूठी इस छेद में गिर गई है. उसे ले लाओ.”

मनवाँछित रूप धारण कर सकने में समर्थ हनुमानजी के पास ऐसी शक्ति थी कि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट से विराट आकार ग्रहण कर सकते थे. वह किसी भी छेद में प्रविष्ट हो सकते थे, फिर वह चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो.

तो हनुमानजी ने लघु रूप धरा और उस छेद में प्रविष्ट हो गए. हनुमानजी ने छेद में प्रवेश क्या किया कि वह धरती के गर्भ में भीतर ही भीतर उतरते चले गए. इतना नीचे कि वह सीधे पाताल लोक पहुँच गए.

वहाँ सबसे पहले स्त्रियों ने उन्हें देखा, “देखो, यह बन्दर का बच्चा! यह ऊपर से टपका है!”

उन स्त्रियों ने हनुमानजी को पकड़कर एक थाली पर बैठा लिया. पाताल लोक में रहने वाला भूतोंका राजा जानवरों के माँस का शौकीन था. सो, साग-सब्जियों के साथ जीते-जागते हनुमानजी को भी राजा के रात्रि भोज के लिए परोसगारी करने वालों के पास पहुँचा दिया गया.

थाली पर बैठे हनुमान असमंजस में थे कि क्या करें.

हनुमान इधर पाताल लोक में परेशानी का सामना कर रहे थे तो रामजी उधर मानव लोक में अयोध्या के सिंहासन पर निश्चिन्त विराजमान थे. इतने में ऋषि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा उनसे भेंट करने के लिए पधारे.

उन्होंने प्रभु राम से कहा, “हम आपसे एकान्त में बात करना चाहते हैं. हम नहीं चाहते कि अपनी बातचीत कोई और सुने या बीच में बोले. क्या आपको स्वीकार है?”

“ठीक है. चलिए, हम बात करें,” रामजी ने कहा.

अतिथियों ने कहा, “ऐसे नहीं. वचन दीजिए कि अपनी वार्ता के बीच यदि कोई भीतर आ जाएगा तो उसका सिर तुरन्त काट दिया जाएगा.”

रामजी ने कहा, “स्वीकार है.”

जब यह नाज़ुक वार्ता चल रही होगी, उस समय द्वार पर पहरा देने के लिए सबसे विश्वसनीय व्यक्ति कौन है?

हनुमान तो अँगूठी लाने के लिए धरती के भीतर बने छेद में समाए हुए हैं.

रामजी को अब लक्ष्मण से अधिक विश्वास किसी पर नहीं था. सो, उन्होंने लक्ष्मण को द्वार पर तैनात कर दिया,

“भीतर किसीको न आने देना!”

लक्ष्मणजी द्वार पर निष्ठा से पहरा दे रहे थे. इतने में कहीं से ऋषि विश्वामित्र प्रकट हो गए.

उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा, “मुझे राम से इसी समय मिलना है. बहुत आवश्यक कार्य है. राम कहाँ हैं?”

लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया, “ऋषिवर, राम कुछ अतिथियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण वार्ता में व्यस्त हैं. अभी आप भीतर न जा सकेंगे.”

“ऐसा क्या है, जो राम मुझसे छिपाएं?” विश्वामित्रजी ने कहा,
“मुझे इसी समय भीतर जाना होगा.”

लक्ष्मणजी बोले, “ आपको भीतर ले जाने से पहले मुझे रामजी से अनुमति लेनी होगी.”

“ठीक है, अनुमति ले लो.”

“मैं भीतर नहीं जा सकता, जब तक राम स्वयं बाहर नहीं आ जाते. आपको कृपापूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, मुनिवर.”

“यदि तुम भीतर जाकर राम को मेरे आगमन की सूचना न दोगे तो मैं शाप देकर अयोध्या का सम्पूर्ण साम्राज्य भस्म कर दूँगा,” विश्वामित्रजी ने धमकाया.

लक्ष्मणजी ने सोचा, “यदि मैं भीतर जाता हूँ तो मारा जाऊँगा.
यदि भीतर न जाऊँ तो क्रुद्ध मुनिवर सारे के सारे साम्राज्य को ही भस्मीभूत कर देंगे. सारी प्रजा, सारे प्राणियों का विनाश हो जाएगा. सही होगा कि मैं अकेला ही प्राणोत्सर्ग करूँ.”

लक्ष्मणजी सीधे भीतर चल दिए.

रामजी ने पूछा, “क्या बात है?”

“विश्वामित्रजी पधारे हैं.”

“उन्हें सम्मानपूर्वक भीतर ले आओ.”

और विश्वामित्रजी भीतर पहुँच गए.

वह गोपनीय वार्ता समाप्त हो चुकी थी. ब्रह्माजी और वशिष्ठजी प्रभु राम से बस यह कहने पधारे थे कि मृत्युलोक में आप से अभीष्ट कार्य सम्पन्न हो चुका है.  राम अवतार के समापन का समय आ पहुँचा है. अब आपको यह नश्वर शरीर त्यागकर देवलोक को लौटना होगा.

लक्ष्मणजी ने रामजी से कहा, “भैया, आपको मेरा सिर काटना होगा.”

रामजी बोले, “क्यों? हमारी बातचीत तो समाप्त हो चुकी थी. कहने-सुनने को कुछ रह ही नहीं गया था. तो मैं तुम्हारा सिर क्यों काटूँ भला?”

लक्ष्मण बोले, “आप ऐसा नहीं कर सकते, भैया.केवल इसलिए कि मैं आपका भाई हूँ, आप मुझे बख्श नहीं सकते. ऐसा करने से राम नाम कलंकित हो जाएगा. आपने अपनी धर्मपत्नी को भी नहीं बख्शा. उन्हें वन भेज दिया. मुझे दण्ड मिलना ही चाहिए.मैं प्राण देने को तैयार हूँ.”

लक्ष्मणजी  थे विष्णु की शय्या शेषनाग के अवतार. रामजी के साथ इस लोक में उनका समय भी पूरा हो चुका था. वह सीधे सरयू नदी पहुँचे और उसकी जल-धारा में विलीन हो गए.

लक्ष्मणजी के देह-त्याग करते ही प्रभु राम ने विभीषण, सुग्रीव आदि अपने मित्रों को बुलाया. उन्होंने अपने जुड़वां पुत्रों लव-कुश के राजतिलक की व्यवस्था कर दी. फिर अपनी नश्वर देह सरयू नदी के क्षिप्र जल-प्रवाह को समर्पित कर दी.

धराधाम पर यह सारा असाधारण घटना-चक्र चल रहा था और हनुमानजी महाराज अभी पाताल लोक में ही थे.

अन्त में, जब उन्हें भूतों के राजा के पास ले जाया गया तो वह राम नाम जप रहे थे -

-राम-राम राम-राम राम-राम.

यह देखकर भूतों के राजा ने पूछा, “कौन हो तुम?”

“हनुमान.”

“हनुमान? यहाँ क्यों आए हो?”

“मेरे स्वामी रामजी की अँगूठी भूमि के एक छेद में गिर गई थी. उसी को लेने आया हूँ.”

भूतों के राजा ने इधर-उधर देखा. उसने हनुमान को एक थाल की ओर संकेत किया. उस थाल में हज़ारों अँगूठियां थीं.

राजा स्वयं उठा. थाल वह हनुमानजी के सामने ले आया.

उसे भूमि पर रखकर राजा ने हनुमानजी से कहा, “अपने राम की अँगूठी पहचानकर ले लो.”

सारी की सारी अँगूठियां एक जैसी थीं. हूबहू. किसी में भी रत्ती भर का अन्तर नहीं.

हनुमानजी की बुद्धि चकरा गई, “मैं समझ नहीं पा रहा, इसमें वह अँगूठी कौन-सी है जिसे मैं लेने आया हूँ,” और उन्होंने मायूसी में दाएं-बाएं गरदन हिला दी.

भूतों के राजा ने कहा, “थाल में जितनी अँगूठियां हैं, सृष्टि में अब तक उतने ही राम हो चुके हैं. जब तुम भू-लोक पहुँचोगे तो राम तुम्हें नहीं मिलेंगे. राम का यह अवतार अब समाप्त हो चुका है. जब भी राम अवतार का काल पूरा होने को होता है, उनकी अँगूठी नीचे गिरकर यहाँ पहुँच जाती है. मैं उसे सहजकर रख लेता हूँ. तुम अब जा सकते हो.”

और हनुमान खाली हाथ वापस चल पड़े.

इसी प्रकार का प्रसंग एक बार और सुना था ।

जब वीर हनुमान माता सीता से चूड़ामणि लेकर वापस आ रहे थे तो उन्हें अभिमान हो गया ।

उनके अभिमान को दूर करने के लिए एक ऋषि ने उनसे कहा की चूड़ामणि धूल से गन्दी हो चुकी है और इसे इस अवस्था में रामजी को देना उचित न होगा अतः इसे मेरे कमंडल में धो लो ।

वीर हनुमान को उस ऋषि की बात उचित लगी और उन्होंने चूड़ामणि को कमंडल में धोने के लिए डाल दिया । जब उन्होंने चूड़ामणि को निकलने के लिए वापस कमंडल में हाथ डाला तो उनके हाथ में कई चूड़ामणि आई जो दिखने में एक जैसी थी ।

हनुमानजी को विस्मित देखकर ऋषि बोले की तुम पहले हनुमान नही हो जिसने ये कार्य किया है ।

जब जब पाप धरा पर आई ।
कथा जाई पुनि पुनि दोहराई ।।

हरि अनंत हरिकथा अनंता

स्रोत:
THREE HUNDRED RAMAYANAS by A.K. RAMANUJAN

माँ


कृपया इस कविता को जहाँ तक सम्भव हो सके सभी धर्मों के व्यक्तियों तक पहुँचाने की सेवा करें :

एक बार इस कविता को दिल से पढ़िये
शब्द शब्द में गहराई है...

जब आंख खुली तो अम्‍मा की
गोदी का एक सहारा था
उसका नन्‍हा सा आंचल मुझको
भूमण्‍डल से प्‍यारा था

उसके चेहरे की झलक देख
चेहरा फूलों सा खिलता था
उसके स्‍तन की एक बूंद से
मुझको जीवन मिलता था

हाथों से बालों को नोंचा
पैरों से खूब प्रहार किया
फिर भी उस मां ने पुचकारा
हमको जी भर के प्‍यार किया
मैं उसका राजा बेटा था
वो आंख का तारा कहती थी
मैं बनूं बुढापे में उसका
बस एक सहारा कहती थी

उंगली को पकड. चलाया था
पढने विद्यालय भेजा था
मेरी नादानी को भी निज
अन्‍तर में सदा सहेजा था

मेरे सारे प्रश्‍नों का वो
फौरन जवाब बन जाती थी
मेरी राहों के कांटे चुन
वो खुद गुलाब बन जाती थी

मैं बडा हुआ तो कॉलेज से
इक रोग प्‍यार का ले आया
जिस दिल में मां की मूरत थी
वो रामकली को दे आया

शादी की पति से बाप बना
अपने रिश्‍तों में झूल गया
अब करवाचौथ मनाता हूं
मां की ममता को भूल गया

☀हम भूल गये उसकी ममता
मेरे जीवन की थाती थी
हम भूल गये अपना जीवन
वो अमृत वाली छाती थी

हम भूल गये वो खुद भूखी
रह करके हमें खिलाती थी
हमको सूखा बिस्‍तर देकर
खुद गीले में सो जाती थी

हम भूल गये उसने ही
होठों को भाषा सिखलायी थी
मेरी नीदों के लिए रात भर
उसने लोरी गायी थी

हम भूल गये हर गलती पर
उसने डांटा समझाया था
बच जाउं बुरी नजर से
काला टीका सदा लगाया था

हम बडे हुए तो ममता वाले
सारे बन्‍धन तोड. आए
बंगले में कुत्‍ते पाल लिए
मां को वृद्धाश्रम छोड आए

उसके सपनों का महल गिरा कर
कंकर-कंकर बीन लिए
खुदग़र्जी में उसके सुहाग के
आभूषण तक छीन लिए

☔हम मां को घर के बंटवारे की
अभिलाषा तक ले आए
उसको पावन मंदिर से
गाली की भाषा तक ले आए

मां की ममता को देख मौत भी
आगे से हट जाती है
गर मां अपमानित होती
धरती की छाती फट जाती है

घर को पूरा जीवन देकर
बेचारी मां क्‍या पाती है
रूखा सूखा खा लेती है
पानी पीकर सो जाती है

जो मां जैसी देवी घर के
मंदिर में नहीं रख सकते हैं
वो लाखों पुण्‍य भले कर लें
इंसान नहीं बन सकते हैं

मां जिसको भी जल दे दे
वो पौधा संदल बन जाता है
मां के चरणों को छूकर पानी
गंगाजल बन जाता है

मां के आंचल ने युगों-युगों से
भगवानों को पाला है
मां के चरणों में जन्‍नत है
गिरिजाघर और शिवाला है

हिमगिरि जैसी उंचाई है
सागर जैसी गहराई है
दुनियां में जितनी खुशबू है
मां के आंचल से आई है

मां कबिरा की साखी जैसी
मां तुलसी की चौपाई है
मीराबाई की पदावली
खुसरो की अमर रूबाई है

मां आंगन की तुलसी जैसी
पावन बरगद की छाया है
मां वेद ऋचाओं की गरिमा
मां महाकाव्‍य की काया है

मां मानसरोवर ममता का
मां गोमुख की उंचाई है
मां परिवारों का संगम है
मां रिश्‍तों की गहराई है

मां हरी दूब है धरती की
मां केसर वाली क्‍यारी है
मां की उपमा केवल मां है
मां हर घर की फुलवारी है

सातों सुर नर्तन करते जब
कोई मां लोरी गाती है
मां जिस रोटी को छू लेती है
वो प्रसाद बन जाती है

मां हंसती है तो धरती का
ज़र्रा-ज़र्रा मुस्‍काता है
देखो तो दूर क्षितिज अंबर
धरती को शीश झुकाता है

माना मेरे घर की दीवारों में
चन्‍दा सी मूरत है
पर मेरे मन के मंदिर में
बस केवल मां की मूरत है

❄मां सरस्‍वती लक्ष्‍मी दुर्गा
अनुसूया मरियम सीता है
मां पावनता में रामचरित
मानस है भगवत गीता है

अम्‍मा तेरी हर बात मुझे
वरदान से बढकर लगती है
हे मां तेरी सूरत मुझको
भगवान से बढकर लगती है

सारे तीरथ के पुण्‍य जहां
मैं उन चरणों में लेटा हूं
जिनके कोई सन्‍तान नहीं
मैं उन मांओं का बेटा हूं

♨हर घर में मां की पूजा हो
ऐसा संकल्‍प उठाता हूं
मैं दुनियां की हर मां के
चरणों में ये शीश झुकाता हूं...

श्री राधा-माधव कृपा

श्रीराधा-माधव कृपा

"बहुत समय पहले की बात है वृन्दावन में एक महात्मा जी का निवास था जो युगल स्वरुप की उपासना किया करते थे.

एक बार वे महात्मा जी संध्यावन्दन के उपरान्त कुँजवन की राह पर जा रहे थे, मार्ग में महात्मा जी जब एक वटवृक्ष के निचे होकर निकले तो उनकी जटा उस वट-वृक्ष की जटाओं में उलझ गईं,

बहुत प्रयास किया सुलझाने का परन्तु जब जटा नहीं सुलझी तो महात्मा भी तो महात्मा हैं वे आसन जमा कर बैठ गए की जिसने जटा उलझाई है वो सुलझाने आएगा तो ठीक है नही तो मैं ऐसे ही बैठा रहूँगा और बैठे- बैठे ही प्राण त्याग दूँगा......

तीन दिन बीत गए महात्मा जी को बैठे हुए...

एक सांवला सलोना ग्वालिया आया जो पाँच-सात वर्ष का रहा होगा...

वो बालक ब्रजभाषा में बड़े दुलार से बोला "बाबा तुम्हारी तो जटा उलझ गईं, अरे मैं सुलझा दऊँ का".

और जैसे ही वो बालक जटा सुलझाने आगे बढ़ा महात्मा जी ने कहा "हाथ मत लगाना...पीछे हटो....कौन हो तुम"

ग्वालिया : अरे हमारो जे ही गाम है महाराज गैया चरा रह्यो तो मैंने देखि महात्मा जी की जटा उलझ गईं है मैंने सोची ऐसो करूँ मैं जाए के सुलझा दऊँ.....

महात्मा जी : न न न दूर हट जा

ग्वालिया : चौं काह भयो..?

महात्मा जी : जिसने जटा उलझाई है वो आएगा तो ठीक नहीं तो इधर ही बस गोविन्दाय नमो नमः

ग्वालिया : अरे महाराज तो जाने उलझाई है वाको नाम बताए देयो वाहे बुला लाऊँगो.....

महात्मा जी : बोला न जिसने उलझाई है वो अपने आप आ जायेगा..तू जा नाम नहीं बताते हम......

कुछ देर तक वो बालक महात्मा जी को समझाता रहा परन्तु जब महात्मा जी नहीं माने तो उसी क्षण ग्वालिया के भेष को छुपा कर ग्वालिया में से साक्षात् मुरली बजाते हुए मुस्कुराते हुए भगवान बाँकेबिहारी प्रकट हो गए.......

सांवरिया सरकार बोले "महात्मन मैंने जटा उलझाई है ? तो लो आ गया मैं"...

और जैसे ही सांवरिया जी जटा सुलझाने आगे बढे..महात्मा जी ने कहा "हाथ मत लगाना....पीछे हटो....पहले बताओ तुम कौन से कृष्ण हो ?

महात्मा जी के वचन सुनकर सांवरिया जी सोच में पड़ गए, अरे कृष्ण भी दस-पाँच होते हैं क्या ?

महात्मा जी फिर बोले "बताओ भी तुम कौन से कृष्ण हो....?"

सांवरिया जी : कौन से कृष्ण हो मतलब ?

महात्मा जी : देखो कृष्ण भी कई प्रकार के होते हैं, एक होते हैं देवकीनंदन कृष्ण, एक होते हैं यशोदानंदन कृष्ण, एक होते हैं द्वारकाधीश कृष्ण, एक होते हैं नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण....

सांवरिया जी : आपको कौन सा चाहिए....?

महात्मा जी : मैं तो नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण का परमोपासक हूँ...... 

सांवरिया जी : वही तो मैं हूँ.......अब सुलझा दूँ....?

और जैसे ही जटा सुलझाने सांवरिया सरकार आगे बढे तो महात्मा जी बोल उठे "हाथ मत लगाना...पीछे हटो....बड़े आये नित्य- निकुँजबिहारी कृष्ण....अरे नित्य- निकुँजबिहारी कृष्ण तो किशोरी जी के बिना मेरी स्वामिनी श्री राधारानी के बिना एक पल भी नहीं रहते और तुम तो अकेले सोटा से खड़े हो........

" महात्मा जी के इतना कहते ही सांवरिया जी के कंधे पर श्रीजी का मुख दिखाई दिया, आकाश में बिजली सी चमकी और साक्षात् वृषभानु नंदिनी, वृन्दावनेश्वरी, रासेश्वरी श्री हरिदासेश्वरी स्वामिनी श्री राधिका जी अपने प्रीतम को गल-बहियाँ दिए महात्मा जी के समक्ष प्रकट हो गईं और बोलीं

" बाबा मैं अलग हूँ क्या अरे मैं ही तो ये कृष्ण हूँ और ये कृष्ण ही तो राधा हैं, हम दोनों अलग थोड़े न है... हम दोनों एक हैं "..........

अब तो युगल स्वरुप का दर्शन पाकर महात्मा जी आनंदविभोर हो उठे...उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी.....

अब जैसे ही किशोरी राधा-कृष्ण जटा सुलझाने आगे बढे महात्मा जी चरणों में गिर पड़े और बोले " अब जटा क्या सुलझाते हो युगल जी अब तो जीवन ही सुलझा दो. मुझे नित्य लीला में प्रवेश देकर इस संसार से मुक्त करो दो"

महात्मा जी ने ऐसी प्रार्थना करी और प्रणाम करते-करते उनका शरीर शांत हो गया....

स्वामिनी जी ने उनको नित्य लीला में स्थान प्रदान किया.

ये भाव राज्य की लीला है, भगवान श्रीराधा-माधव में कोई भेद नहीं है. दोनों एक प्राण दो देह हैं. जो मनुष्य अपनी अल्पज्ञतावश मूढ़तावश या अहंकारवश किशोरी राधा-कृष्ण दोनों में भेद समझते हैं वे संसार के घोर मायाजाल में गिर जाते हैं उनका पतन होना निश्चित है, वे भक्ति के परमपद को कभी प्राप्त नहीं करते........

युगल चरणों में प्रेमभाव रखते हुए किशोरी राधा-कृष्ण एवं समस्त भक्तवृंद को दास का दंडवत प्रणाम

भगवान श्रीराधाकृष्ण की कृपा सदैव हम सभी पर बरसती रहे.

जय श्रीराधामाधव