Sunday, 21 June 2015

वृद्ध होते पिता..... (2)

वक्त के साथ वृद्ध होते पिता,
तुम्हें देखकर,
सभी घड़ियाँ तोड़ने का मन करता है,
ये जो छोटी मुश्किलें
तुम्हारे बड़े जीवट को पस्त करने लगी हैं,
अपने सब सपनों में
तुम्हारी उम्र सहेजने का मन करता है,
अब बहुत से काम मैं कर सकता हूँ,
जो तुम नहीं कर पाते,
तो ये सारी कामयाबी फेंकने का मन करता है,
देर से लौटने पर अब
तुम क्यों नहीं पूछते देरी का कारण,
तुम्हें बहुत से जवाब देने का मन करता है,
तुम्हीं मेरे नायक हो
और सफलताओं के सर्वोच्च प्रतिरूप,
नहीं अच्छा लगता अपने पैर में तुम्हारे जूते पहनना,
तुम्हें वही हिम्मती जवान देखने का मन करता है,
चश्मे के पीछे से झाँकती,
तुम्हारी सिकुड़ी मगर खूबसूरत आँखें,
अख़बार पढ़ती हुई नहीं,
ख्वाब देखती हुई अच्छी लगती हैं,
एक प्यारी-सी शर्त लगाएँ आओ फिर,
सब शर्तों में तुमसे हारने का मन करता है,
तुमसे छिपकर अब कुछ बातें
आहिस्ता होती हैं,
घर में अब कुछ हँसी ठहाके
आहिस्ता होते हैं,
आओ मिलकर हँसें, खेलें खेल पुराने,
हँसते हँसते तुम्हारी गोदी में सिर रखकर,
घंटों रोने का मन करता है,
हर एक कहानी झूठी है,
सब दादी नानी झूठी हैं,
सच वो है बस,
जो तुम बोलो और मैं सुन लूँ,
एक नई कहानी सुनते सुनते
हर रात तुम्हारे पाँव दबाने का मन करता है,
तुम्हारी चुप्पी का यह हर क्षण
एक एक युग से भी लम्बा है,
पुरानी डायरी को खोलो अब,
कुछ गीत तुम्हारे सुनने का मन करता है,
तुम चुके नहीं हो,
बस रुक गए हो,
तुम ढले नहीं हो,
बस थक गए हो,
तुम जागो तो सवेरा हो,
तुम सो जाओ तो अंधेरा हो,
तुममें अब भी शक्ति है,
जीतने की, उड़ने की,
तुममें अब भी शक्ति है,
आसमान रचने की,
कभी घूमने का मन करे तो बताना,
तुम्हारे साथ पैदल चाँद तक चलने का मन करता है।

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