कितने-कितने राम
एक दिन की बात है. रामजी सिंहासन पर विराजमान थे. उनकी अँगूठी अनामिका से खिसककर अचानक गिर पड़ी.
अँगूठी ने ज़मीन को छुआ तो उस जगह एक छेद बन गया. अँगूठी उसी छेद में लुप्त हो गई.
अपने स्वामी के विश्वसनीय अनुचर हनुमान हमेशा की तरह प्रभु राम के चरणों में किसी भी प्रकार की सत्वर सेवा देने के लिए प्रस्तुत थे.
प्रभु राम ने उनसे कहा, “मित्र, देखो मेरी अँगूठी इस छेद में गिर गई है. उसे ले लाओ.”
मनवाँछित रूप धारण कर सकने में समर्थ हनुमानजी के पास ऐसी शक्ति थी कि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट से विराट आकार ग्रहण कर सकते थे. वह किसी भी छेद में प्रविष्ट हो सकते थे, फिर वह चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो.
तो हनुमानजी ने लघु रूप धरा और उस छेद में प्रविष्ट हो गए. हनुमानजी ने छेद में प्रवेश क्या किया कि वह धरती के गर्भ में भीतर ही भीतर उतरते चले गए. इतना नीचे कि वह सीधे पाताल लोक पहुँच गए.
वहाँ सबसे पहले स्त्रियों ने उन्हें देखा, “देखो, यह बन्दर का बच्चा! यह ऊपर से टपका है!”
उन स्त्रियों ने हनुमानजी को पकड़कर एक थाली पर बैठा लिया. पाताल लोक में रहने वाला भूतोंका राजा जानवरों के माँस का शौकीन था. सो, साग-सब्जियों के साथ जीते-जागते हनुमानजी को भी राजा के रात्रि भोज के लिए परोसगारी करने वालों के पास पहुँचा दिया गया.
थाली पर बैठे हनुमान असमंजस में थे कि क्या करें.
हनुमान इधर पाताल लोक में परेशानी का सामना कर रहे थे तो रामजी उधर मानव लोक में अयोध्या के सिंहासन पर निश्चिन्त विराजमान थे. इतने में ऋषि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा उनसे भेंट करने के लिए पधारे.
उन्होंने प्रभु राम से कहा, “हम आपसे एकान्त में बात करना चाहते हैं. हम नहीं चाहते कि अपनी बातचीत कोई और सुने या बीच में बोले. क्या आपको स्वीकार है?”
“ठीक है. चलिए, हम बात करें,” रामजी ने कहा.
अतिथियों ने कहा, “ऐसे नहीं. वचन दीजिए कि अपनी वार्ता के बीच यदि कोई भीतर आ जाएगा तो उसका सिर तुरन्त काट दिया जाएगा.”
रामजी ने कहा, “स्वीकार है.”
जब यह नाज़ुक वार्ता चल रही होगी, उस समय द्वार पर पहरा देने के लिए सबसे विश्वसनीय व्यक्ति कौन है?
हनुमान तो अँगूठी लाने के लिए धरती के भीतर बने छेद में समाए हुए हैं.
रामजी को अब लक्ष्मण से अधिक विश्वास किसी पर नहीं था. सो, उन्होंने लक्ष्मण को द्वार पर तैनात कर दिया,
“भीतर किसीको न आने देना!”
लक्ष्मणजी द्वार पर निष्ठा से पहरा दे रहे थे. इतने में कहीं से ऋषि विश्वामित्र प्रकट हो गए.
उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा, “मुझे राम से इसी समय मिलना है. बहुत आवश्यक कार्य है. राम कहाँ हैं?”
लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया, “ऋषिवर, राम कुछ अतिथियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण वार्ता में व्यस्त हैं. अभी आप भीतर न जा सकेंगे.”
“ऐसा क्या है, जो राम मुझसे छिपाएं?” विश्वामित्रजी ने कहा,
“मुझे इसी समय भीतर जाना होगा.”
लक्ष्मणजी बोले, “ आपको भीतर ले जाने से पहले मुझे रामजी से अनुमति लेनी होगी.”
“ठीक है, अनुमति ले लो.”
“मैं भीतर नहीं जा सकता, जब तक राम स्वयं बाहर नहीं आ जाते. आपको कृपापूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, मुनिवर.”
“यदि तुम भीतर जाकर राम को मेरे आगमन की सूचना न दोगे तो मैं शाप देकर अयोध्या का सम्पूर्ण साम्राज्य भस्म कर दूँगा,” विश्वामित्रजी ने धमकाया.
लक्ष्मणजी ने सोचा, “यदि मैं भीतर जाता हूँ तो मारा जाऊँगा.
यदि भीतर न जाऊँ तो क्रुद्ध मुनिवर सारे के सारे साम्राज्य को ही भस्मीभूत कर देंगे. सारी प्रजा, सारे प्राणियों का विनाश हो जाएगा. सही होगा कि मैं अकेला ही प्राणोत्सर्ग करूँ.”
लक्ष्मणजी सीधे भीतर चल दिए.
रामजी ने पूछा, “क्या बात है?”
“विश्वामित्रजी पधारे हैं.”
“उन्हें सम्मानपूर्वक भीतर ले आओ.”
और विश्वामित्रजी भीतर पहुँच गए.
वह गोपनीय वार्ता समाप्त हो चुकी थी. ब्रह्माजी और वशिष्ठजी प्रभु राम से बस यह कहने पधारे थे कि मृत्युलोक में आप से अभीष्ट कार्य सम्पन्न हो चुका है. राम अवतार के समापन का समय आ पहुँचा है. अब आपको यह नश्वर शरीर त्यागकर देवलोक को लौटना होगा.
लक्ष्मणजी ने रामजी से कहा, “भैया, आपको मेरा सिर काटना होगा.”
रामजी बोले, “क्यों? हमारी बातचीत तो समाप्त हो चुकी थी. कहने-सुनने को कुछ रह ही नहीं गया था. तो मैं तुम्हारा सिर क्यों काटूँ भला?”
लक्ष्मण बोले, “आप ऐसा नहीं कर सकते, भैया.केवल इसलिए कि मैं आपका भाई हूँ, आप मुझे बख्श नहीं सकते. ऐसा करने से राम नाम कलंकित हो जाएगा. आपने अपनी धर्मपत्नी को भी नहीं बख्शा. उन्हें वन भेज दिया. मुझे दण्ड मिलना ही चाहिए.मैं प्राण देने को तैयार हूँ.”
लक्ष्मणजी थे विष्णु की शय्या शेषनाग के अवतार. रामजी के साथ इस लोक में उनका समय भी पूरा हो चुका था. वह सीधे सरयू नदी पहुँचे और उसकी जल-धारा में विलीन हो गए.
लक्ष्मणजी के देह-त्याग करते ही प्रभु राम ने विभीषण, सुग्रीव आदि अपने मित्रों को बुलाया. उन्होंने अपने जुड़वां पुत्रों लव-कुश के राजतिलक की व्यवस्था कर दी. फिर अपनी नश्वर देह सरयू नदी के क्षिप्र जल-प्रवाह को समर्पित कर दी.
धराधाम पर यह सारा असाधारण घटना-चक्र चल रहा था और हनुमानजी महाराज अभी पाताल लोक में ही थे.
अन्त में, जब उन्हें भूतों के राजा के पास ले जाया गया तो वह राम नाम जप रहे थे -
-राम-राम राम-राम राम-राम.
यह देखकर भूतों के राजा ने पूछा, “कौन हो तुम?”
“हनुमान.”
“हनुमान? यहाँ क्यों आए हो?”
“मेरे स्वामी रामजी की अँगूठी भूमि के एक छेद में गिर गई थी. उसी को लेने आया हूँ.”
भूतों के राजा ने इधर-उधर देखा. उसने हनुमान को एक थाल की ओर संकेत किया. उस थाल में हज़ारों अँगूठियां थीं.
राजा स्वयं उठा. थाल वह हनुमानजी के सामने ले आया.
उसे भूमि पर रखकर राजा ने हनुमानजी से कहा, “अपने राम की अँगूठी पहचानकर ले लो.”
सारी की सारी अँगूठियां एक जैसी थीं. हूबहू. किसी में भी रत्ती भर का अन्तर नहीं.
हनुमानजी की बुद्धि चकरा गई, “मैं समझ नहीं पा रहा, इसमें वह अँगूठी कौन-सी है जिसे मैं लेने आया हूँ,” और उन्होंने मायूसी में दाएं-बाएं गरदन हिला दी.
भूतों के राजा ने कहा, “थाल में जितनी अँगूठियां हैं, सृष्टि में अब तक उतने ही राम हो चुके हैं. जब तुम भू-लोक पहुँचोगे तो राम तुम्हें नहीं मिलेंगे. राम का यह अवतार अब समाप्त हो चुका है. जब भी राम अवतार का काल पूरा होने को होता है, उनकी अँगूठी नीचे गिरकर यहाँ पहुँच जाती है. मैं उसे सहजकर रख लेता हूँ. तुम अब जा सकते हो.”
और हनुमान खाली हाथ वापस चल पड़े.
इसी प्रकार का प्रसंग एक बार और सुना था ।
जब वीर हनुमान माता सीता से चूड़ामणि लेकर वापस आ रहे थे तो उन्हें अभिमान हो गया ।
उनके अभिमान को दूर करने के लिए एक ऋषि ने उनसे कहा की चूड़ामणि धूल से गन्दी हो चुकी है और इसे इस अवस्था में रामजी को देना उचित न होगा अतः इसे मेरे कमंडल में धो लो ।
वीर हनुमान को उस ऋषि की बात उचित लगी और उन्होंने चूड़ामणि को कमंडल में धोने के लिए डाल दिया । जब उन्होंने चूड़ामणि को निकलने के लिए वापस कमंडल में हाथ डाला तो उनके हाथ में कई चूड़ामणि आई जो दिखने में एक जैसी थी ।
हनुमानजी को विस्मित देखकर ऋषि बोले की तुम पहले हनुमान नही हो जिसने ये कार्य किया है ।
जब जब पाप धरा पर आई ।
कथा जाई पुनि पुनि दोहराई ।।
हरि अनंत हरिकथा अनंता
स्रोत:
THREE HUNDRED RAMAYANAS by A.K. RAMANUJAN
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